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ध्यान - सन्यास की अनिवार्य शर्त : ओशो की नजर से

No meditation, no life. Know meditation, know life." - Ocho truth ...

ध्यान - सन्यास की अनिवार्य शर्त : ओशो की नजर से


मेरे संन्यास में सिर्फ एक अनिवार्यता है, एक अनिवार्य शर्त है और वह है, ध्यान। बाकी कोई व्रत-नियम ऊपर से मैं थोपने के लिए राजी नहीं हूं। क्योंकि जो भी व्रत और नियम ऊपर से थोपे जाते हैं, वे पाखंड का निर्माण कर देते हैं। सिर्फ ध्यान की टेक्नीक संन्यासी सीखे; प्रयोग करे; ध्यान में गहरा उतरे।

और मेरी अपनी समझ और सारी मनुष्य जाति के अनुभव का सार-निचोड़ यह है कि जो ध्यान में गहरा उतर जाए, वह योगाग्नि में ही गहरा उतर रहा है। उसकी वृत्तियां भस्म हो जाती हैं, उसके इंद्रियों के रस खो जाते हैं। वह धीरे- धीरे सहज--सहज, जबर्दस्ती नहीं, बलात नहीं--सहज रूपांतरित होता चला जाता है। उसके भीतर से ही सब बदल जाता है। उसके बाहर के सब संबंध वैसे ही बने रहते हैं; वह भीतर से बदल जाता है। इसलिए सारी दुनिया उसके लिए बदल जाती है।

ध्यान के अतिरिक्त संन्यासी के लिए और कोई अनिवार्यता नहीं है।
कपड़े आप देखते हैं गैरिक, संन्यासी पहने हुए हैं। यह मैंने सुबह जैसा कहा, गांठ बांधने जैसा इनका उपयोग है। चौबीस घंटे याद रह सकेगा; स्मरण, रिमेंबरिंग रह सकेगी कि मैं संन्यासी हूं। बस, यह स्मरण इनको रह सके, इसलिए इन्हें गैरिक वस्त्र दे दिए हैं। गैरिक वस्त्र भी जानकर दिए हैं; वे अग्नि के रंग के वस्त्र हैं। भीतर भी ध्यान की अग्नि जलानी है। उसमें सब जला डालना है। भीतर भी ध्यान का यज्ञ जलाना है, उसमें सब आहुति दे देनी है।

उनके गलों में आप मालाएं देख रहे हैं। उन मालाओं में एक सौ आठ गुरिए हैं। वे एक सौ आठ ध्यान की विधियों के प्रतीक हैं। और उन्हें स्मरण रखने के लिए दिया है कि वे भलीभांति जानें कि चाहे अपने हाथ में एक ही गुरिया हो, लेकिन और एक सौ सात मार्गों से भी मनुष्य पहुंचा है, पहुंच सकता है। और एक सौ आठ गुरिए कितने ही अलग हों, उनके भीतर पिरोया हुआ धागा एक ही है। उस एक का स्मरण बना रहे, एक सौ आठ विधियों में, ताकि कभी उनके मन में यह खयाल न आए और कोई एकांगीपन न पकड़ जाए कि मेरा ही मार्ग, मैं जो हूं, वही रास्ता पहुंचाता है। नहीं; सभी रास्ते पहुंचा देते हैं। सभी रास्ते पहुंचा देते हैं।

उनकी मालाओं में एक तस्वीर आप देख रहे हैं। शायद आपको भ्रम होगा कि मेरी है। मेरी बिलकुल नहीं है। क्योंकि मेरी तस्वीर उतारने का कोई उपाय नहीं है। तस्वीर किसी की उतारी नहीं जा सकती; सिर्फ शरीरों की उतारी जा सकती है। मैं उनका गवाह हूं, इसलिए उन्होंने मेरे शरीर की तस्वीर लटका ली है। मैं सिर्फ गवाह हूं, गुरु नहीं हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि गुरु तो सिवाय परमात्मा के और कोई भी नहीं है। मैं सिर्फ विटनेस हूं, कि मेरे सामने उन्होंने कसम ली है इस संन्यास की। मैं उनका गवाह भर हूं। और इसलिए वे मेरे शरीर की रेखाकृति लटकाए हुए हैं, ताकि उनको स्मरण रहे कि उनके संन्यास में वे अकेले नहीं हैं; एक गवाह भी है। और उनके डूबने के साथ उनका गवाह भी डूबेगा। बस, इतने स्मरण भर के लिए।

- ओशो "गीता दर्शन"

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