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राजस्थान की महिला की कहानी : ओशो की जुबानी


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 राजस्थान की महिला की कहानी : ओशो की जुबानी


राजस्थान में एक महिला है : भूरिबाई! अदभुत महिला है!

जब भी मैं राजस्थान जाता था, वह जरूर मुझे मिलने आती थी। बहुत थोड़ी—सी महिलाएं भारत में होंगी, जो उस कोटि की हैं। बिलकुल देहाती है, उसे कुछ पता भी नहीं; मगर सब पता है।

वह मुझसे कहने लगी कि 'बापजी, आप मेरे गाव आना! मैंने एक किताब लिखी है, उसका उदघाटन करना। 'मैंने कहा, 'तू किसी और को धोखा देना। तेरी किताब मैं समझ गया, उसमें क्या होगा। तू उसे यहीं ले आना, मैं यहीं उदघाटन कर दूंगा। तो वह ले आई एक दफा, सिर पर रख कर लाई, बड़ी सुंदर पेटी में सजा कर लाई!

उसके भक्त. उसके भक्त हैं! वह महिला है योग्य! उसके भक्त साथ में आए। उसकी किताब का मैंने उदघाटन कर दिया। कुछ भी नहीं, एक छोटी—सी पुस्तिका थी अंदर, खाली! कुछ उसमें लिखा नहीं था। वह लिखना—पढ़ना जानती भी नहीं।

जब पहली दफा मेरे शिविर में आई तो जो उसके साथ आए थे, भक्त, वे तो सब ध्यान करने लगे, वह उठ कर अपनी कोठरी में चली गई।

उसके भक्तों ने जा कर कहा कि हम आए ही यहां इसलिए हैं कि ध्यान करें, आपने ध्यान नहीं किया? वह कहने लगी कि तुम बापजी से पूछ लेना। वे मेरे पास आए। उन्होंने कहा, यह मामला क्या है? भूरीबाई कहती है, बापजी से पूछ लेना।

'बापजी' मुझे कहना नहीं चाहिए, क्योंकि वह होगी सत्तर— अस्सी साल की। मैंने कहा, वह ठीक कहती है। क्योंकि जो मैंने कहा था वही उसने किया। मैंने कहा था, कुछ न करो, शांत साक्षी हो जाओ! वे उसके पास गए। उन्होंने कहा, उन्होंने तो ऐसा कहा। वह कहने लगी कि ठीक कहा।

वहा तो बड़ी भीड़— भाड़ थी, उपद्रव था। कई लोग कुछ—कुछ कर रहे थे। मैं इस कोठरी में आ कर बैठ गई, मैंने कुछ न किया, बड़ा ध्यान लगा। फिर वह अपने गांव वापिस गई तो गाव के लोगों ने पूछा कि वहा से क्या लाई, तो उसने अपनी कोठरी पर 'चुप' लिखवा दिया।

उसने कहा कि इतना ही समझी मैं तो, वे कहे तो बहुत—सी बातें लेकिन मेरी बुद्धि में ज्यादा नहीं समाता, मैं तो गैर—पढ़ी लिखी हूं; 'चुप'—इतना ही मेरी समझ में आया। वह अपनी कोठरी पर लिखवा रखा है कि इतना उनकी बातों  में से मैं समझ पाई।

कहते तो वे बहुत कुछ हैं, इतना मैं पकड़ पाई। वही मैं तुमको कह सकती हूं। वह जो कोरा कागज है, वह कहता है 'चुप'। वह जो कोरा कागज है, वही कुरान है, वही धम्मपद वही अष्टावक्र की संहिता है। उस कोरे कागज के लिए ही सारे शास्त्रों ने चेष्टा की है कि तुम्हारी समझ में कोरा कागज पढ़ना आ जाए।

शून्य को समझाने के लिए शब्दों का सहारा लिया है; लेकिन शब्दों को समझाने के लिए नहीं—शून्य को समझाने के लिए। मौन में ले जाने के लिए भाषा का प्रयोजन है। तुम साक्षी बनो! तुम कोरे भीतर शून्य के साक्षी बनो! वहीं निर्वाण घटित होता है, समाधि घटित होती है!

ओशो, अष्टावक्र महागीता-१६

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