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"शिष्य बनाया नहीं जाता, शिष्य बनना पड़ता है

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"शिष्य बनाया नहीं जाता, शिष्य बनना पड़ता है


"शिष्य बनाया नहीं जाता, शिष्य बनना पड़ता है। तुम जब किसी से प्रेम करते हो, तो तुम क्या पहले पूछते हो, आज्ञा लेते हो? प्रेम हो जाता है। प्रेम न किसी आज्ञा को मानता है और न किसी अनुमति को, न किसी विधि को, न किसी विधान को। शिष्यत्व क्या है? प्रेम का ऊंचा से ऊंचा, गहरा से गहरा नाम है। तुम मुझे प्रेम करना चाहते हो, तो मैं कैसे रोक सकता हूं? तुम अगर मेरे प्रेम में आंसू गिराओ, तो मैं कैसे रोक सकता हूं? और तुम अगर, जिसे मैं ध्यान कहता हूं, उस ध्यान में डुबकियां लगाओ, तो मैं कैसे रोक सकता हूं? जिसे शिष्य होना है, उसके लिए कोई भी नहीं रोक सकता। और मैंने इसीलिए, जो औपचारिकता थी शिष्य बनाने की, वह छोड़ दी। क्योंकि अब मैं केवल उनको ही चाहता हूं जो अपने से मेरी तरफ आ रहे हैं, किसी और कारण से नहीं। अब पूरा उत्तरदायित्व तुम्हारे ऊपर है।

जैसे स्कूल की पहली कक्षा में हम बच्चों को पढाते हैं - 'आ' आम का, 'ग' गणेश का। पहले हुआ करता था गणेश का, अब तो 'ग' गधे का। यह सेक्युलर राज्य है, यहां गणेश का नाम किताब में आना ठीक नहीं है। लेकिन 'ग' से न कोई गणेश का लेना-देना है, न कोई गधे का। लेकिन बच्चे को सिखाने के लिए...क्योंकि बच्चे को ज्यादा रस गधे में आता है, गणेश में आता है; वह जो 'ग' का अक्षर है, उसमें बच्चे को कोई रस मालूम नहीं होता। लेकिन धीरे-धीरे गधा भी भूल जाएगा, गणेश भी भूल जाएंगे, 'ग' ही रह जाएगा और 'ग' ही काम पड़ेगा।
अगर विश्वविद्यालय तक पहुंचते-पहुंचते भी, हर वक्त, पढ़ते वक्त पहले तुम्हें पढ़ना पड़े 'आ' आम का, 'ग' गधे का, तो हो गई पढ़ाई। एक वाक्य भी पूरा पढ़ना मुश्किल हो जाएगा। और पढ़ने के बाद यह भी समझना मुश्किल हो जाएगा कि इसका मतलब क्या है? क्योंकि उसमें न मालूम कितने गधे होंगे, कितने गणेश होंगे, कितने आम होंगे।


छोटे बच्चों की किताब में तस्वीरें होती हैं, रंगीन तस्वीरें होती हैं, बड़ी तस्वीरें होती हैं, छोटे अक्षर होते हैं। और जैसे-जैसे ऊंची क्लास होने लगती है, तस्वीरें छोटी होने लगती हैं, अक्षर ज्यादा होने लगते हैं। धीरे-धीरे तस्वीरें खो जाती हैं, सिर्फ अक्षर रह जाते हैं। विश्वविद्यालय की कक्षा में कोई तस्वीर नहीं होती, सिर्फ अक्षर होते हैं।
हमारा अक्षर शब्द भी बड़ा प्यारा है। उसका अर्थ है: जो कभी न मिटेगा। क्योंकि गणेश भी मिट जाते हैं, गधे भी मिट जाते हैं, मगर अक्षर रह जाता है। वह क्षर नहीं होता। उसका कोई क्षय नहीं होता।
तो मुझे जब शुरू करना पड़ा तो संन्यास भी मैंने दिया, शिष्य भी मैंने बनाए। मगर कब तक गधों को और गणेशों को, और कब तक आम को और इमली को कब तक खींचना? अब संन्यास प्रौढ़ हुआ है। अब औपचारिकताओं की कोई खास बात नहीं। अब तुम्हारा प्रेम है तो शिष्य हो जाओ। कहने की भी बात नहीं, किसी को बताने की भी जरूरत नहीं। अब तुम्हारा भाव है तो संन्यस्त हो जाओ। अब सारा दायित्व तुम्हारा है। यही तो प्रौढ़ता का लक्षण होता है। अब तुम्हारा हाथ पकड़ कर कब तक मैं चलूंगा? इसके पहले कि मेरे हाथ छूट जाएं, मैंने खुद तुम्हारा हाथ छोड़ दिया है। ताकि तुम खुद अपने पैर, अपने हाथ, अपने दायित्व पर खड़े हो सको और चल सको।


नहीं, तुम्हें शिष्य होने से रुकने की कोई जरूरत नहीं है। न संन्यस्त होने से कोई तुम्हें रोक सकता है। लेकिन अब यह सिर्फ तुम्हारा निर्णय है, और तुम्हारे भीतर की प्यास और तुम्हारे भीतर की पुकार है। मैं तुम्हारे साथ हूं। मेरा आशीष तुम्हारे साथ है।


लेकिन अब तुम्हें समझाऊंगा नहीं कि तुम संन्यासी हो जाओ; और समझाऊंगा नहीं कि ध्यान करो। अब तो इतना ही समझाऊंगा कि ध्यान क्या है। अगर इससे ही तुम्हारे भीतर प्यास पैदा हो जाए, तो कर लेना ध्यान। अब आज्ञा न दूंगा कि प्रेम करो। अब तो सिर्फ प्रेम की व्या"या कर लूंगा, और सब तुम पर छोड़ दूंगा। अगर प्रेम की अनूठी, रहस्यमय बात को सुन कर भी तुम्हारे हृदय की धड़कनों में कोई गीत नहीं उठता, तो आदेश देने से भी कुछ न होगा। और अगर गीत उठता है, तो यह कोई लेने-देने की बात नहीं है। तुम शिष्य हो सकते हो, तुम ध्यान कर सकते हो, तुम संन्यस्त हो सकते हो, तुम समाधिस्थ हो सकते हो, तुम इस जीवन की उस परम निधि को पा सकते हो, जिसे हमने मोक्ष कहा है।


लेकिन यह सब अब तुम्हें करना है। अब कोई और तुम्हें धक्का दे पीछे से, वे दिन बीत गए।
अब तुम बिलकुल स्वतंत्र हो। तुम्हारी मर्जी और तुम्हारी मौज और तुम्हारी मस्ती ही निर्णायक है।"


ओशो, कोंपलें फिर फूट आईं, प्रवचन 8

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