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प्रेम और मृत्यु : ओशो की नजर से

 

Prem aur mrutyu - osho ki najar se


प्रेम और मृत्यु : ओशो की नजर से 

जब तुम प्रेम करते हो तुम घृणा के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो जब तुम घृणा करते हो तुम प्रेम के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो। जब तुम जीवित हो तुम मरने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो और जब तुम मर जाते हो तुम पुनर्जन्म के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो।

अगर तुम केवल जीवन को ही देखते हो तो तुम चूक जाओगे। जीवन में सर्वत्र छिपी मृत्यु को देखो। और अगर तुम यह देख पाओ कि जीवन में मृत्यु छिपी है, तो फिर तुम उलटा भी देख सकते हो कि मृत्यु में जीवन छिपा है। तब दोनों छोर समाप्त हो जाते हैं। जब तुम उन्हें इकट्ठे एक ही साथ देखते हो, तब उसके साथ ही तुम्हारा मन भी विदा हो जाता है। क्यों? --क्योंकि मन केवल आशिक हो सकता है, वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता।

अगर तुम्हें प्रेम में छिपी घृणा दिखाई दे तो तुम क्या करोगे? अगर तुम्हें घृणा में छिपा प्रेम दिखाई तो तब तुम क्या चुनोगे चुनाव करना असंभव हो जाएगा, क्योंकि अगर तुम देखते हो ' मैं प्रेम को चुनता हूं ' तुम यह भी देखते हो कि तुम घृणा को भी चुन रहे हो। और एक प्रेमी घृणा का चुनाव कैसे कर सकता है?

तुम चुन पाते हो क्योंकि घृणा तुम्हें दिखाई नहीं देती। तुमने प्रेम को चुना था, और फिर तुम सोचते हो कि किसी दुर्घटनावश घृणा आ गई है। लेकिन जैसे ही तुम प्रेम ( love )  को चुनते हो, तुमने घृणा को भी चुन लिया है। जैसे ही तुम जीवन को पकड़ते हो तुमने मृत्यु को भी पकड़ लिया है। कोई भी मरना नहीं चाहता- तब जीवन से न चिपको क्योंकि जीवन मृत्यु की ओर अग्रसर है।

जीवन का अस्तित्व ध्रुवीयता में है और मन ध्रुवीयता का एक अंश है इसीलिए मन असत्य है। और मन उस एक अंश को संपूर्ण बनाने की चेष्टा करता है। मन कहता है, 'मैं इस पुरुष या स्त्री से बस प्रेम करता हूं और मैं सिर्फ प्रेम करता हूं। मैं इस स्त्री से घृणा कैसे कर सकता हूं? जब मैं प्रेम करता हूं मैं प्रेम ही करता हूं; घृणा करना असंभव है। '

मन तर्कसंगत प्रतीत होता है लेकिन वह गलत है। अगर तुम प्रेम करते हो तो घृणा संभव है घृणा सिर्फ तभी संभव है जब तुम प्रेम करते हो। तुम किसी व्यक्ति को बिना प्रेम किए घृणा नहीं कर सकते तुम किसी को पहले अपना मित्र बनाए बिना शत्रु नहीं बना सकते। वे दोनों साथ-साथ चलते हैं वे एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे हैं, तुम एक ही पक्ष को देखते हो दूसरा पीछे छिपा है- लेकिन दूसरा वहां है, हमेशा प्रतीक्षा करता हुआ। और जितना तुम बाईं ओर जाते हो उतनी ही तुम दाईं ओर जाने की तैयारी कर रहे हो।

क्या होगा अगर मन दोनों को एक साथ देख सके? मन का होना संभव नहीं है क्योंकि फिर सब असंगत अतर्क हो जाता है। मन केवल एक स्पष्ट तर्कसंगत ढांचे में ही जी सकता है, विपरीत अस्वीकृत होता है। तुम कहते हो ' यह मेरा मित्र है और वह मेरा शत्रु है। ' तुम ऐसा कभी नहीं कह सकते ' यह मेरा मित्र और मेरा शत्रु है। ' अगर तुम यह कहते हो तो बात तर्क के विरुद्ध हो जाती है। अगर तुम असंगत बातों को मन में प्रवेश करने देते हो तो वे मन को पूरी तरह चकनाचूर कर देती हैं- मन गिर जाता है।

जब तुम जीवन की असंगति को देखते हो जीवन किस तरह परस्पर विरोधों के बीच घूमता है जीवन कैसे विपरीतताओं में जीता है तो तुम्हें मन को छोड़ना ही पड़ता है। मन को स्पष्ट सीमा-रेखाएं चाहिए और जीवन में एक भी सीमा-रेखा नहीं है। तुम्हें जीवन से अस्तित्व से अधिक और कुछ भी इतना असंगत नहीं मिल सकता। ' असंगत ' ही इसके लिए शब्द है अगर तुम दोनों ध्रुवीयता को एक साथ देखते हो।

तुम मिलते हो- तुम केवल बिछुड़ने के लिए मिलते हो। तुम किसी व्यक्ति को चाहते हो- तुम किसी व्यक्ति को चाहते हो केवल ना चाहने के लिए। तुम प्रसन्न हो- तुम प्रसन्न हो केवल अप्रसन्नता के बीज बोने के लिए। क्या तुम इससे अधिक बेतुकी परिस्थिति की कल्पना कर सकते हो? अगर तुम्हें सुख चाहिए, तो तुमने पहले ही दुख की चाहना कर ली है अब तुम निरंतर दुखी रहोगे।

क्या किया जाए? मन के पास करने को कुछ बचा नहीं है। मन बस मिट जाता है। और जब मन मिट जाता है तब जीवन असंगत प्रतीत नहीं होता है, तब जीवन एक रहस्य बन जाता है।

इसे समझ लेना जरूरी है क्योंकि जीवन मन की अति तर्कसंगता के कारण असंगत दिखाई पड़ता है; जीवन जंगली प्रतीत होता है क्योंकि तुम बहुत लंबे समय से मानव-निर्मित उपवन में रहे हो। तुम जंगल में जाओ और वह जंगली दिखाई देता है, लेकिन वह तुलना के कारण जंगली प्रतीत होता है। एक बार जब तुम्हें यह समझ में आ जाता है कि जीवन ऐसा है जीवन ऐसा है कि विपरीत सदा साथ जुड़ा है...।

किसी व्यक्ति से प्रेम ( love )  करो और घृणा आ जाएगी। एक मित्र बनाओ और एक शत्रु का जन्म हो जाता है। प्रसन्न होओ और कहीं से पिछले दरवाजे से अप्रसन्नता प्रवेश कर जाती है। इस क्षण का मजा लो और शीघ्र ही तुम रोओगे और चिल्लाओगे। हंसो, और हंसी के ठीक पीछे आसूर फूट कर बाहर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। फिर क्या करें? कुछ भी करने को नहीं बचा। ऐसी ही हैं चीजें।

और सोसान कहता है:


गति को स्थिरता समझों.....


वह यही कह रहा है। वह कह रहा है जब तुम किसी चीज को चलते हुए देखते हो, तो याद रखो भीतर कुछ अचल है। और सारी गति स्थिर की ओर ले जाएगी। वह कहां जाएगी? तुम दौड़ते हो, चलते हो आगे बढ़ते हो। तुम कहां जा रहे हो? - बस कहीं विश्राम करने के लिए जरा कहीं बैठने के लिए। तुम बस कहीं आराम करने के लिए दौड़ रहे हो। इसलिए दौड़ विश्राम पर पहुंचती है गति स्थिर होने की अवस्था पर पहुंचती है। और वह स्थिरता पहले से ही वहां है। तुम दौड़ लगाओ और देखो- तुम्हारे भीतर कुछ है जो दौड़ नहीं रहा है वह दौड़ नहीं सकता। तुम्हारी चेतना अचल बनी रहती है। तुम चाहो तो सारी दुनिया में घूम लो तुम्हारे भीतर कुछ है जो कभी नहीं घूमता घूम ही नहीं

सकता- और सारी गति उस स्थिर केंद्र पर निर्भर है। तुम सब प्रकार की स्थितियों, भाव- दशाओं में उलझ जाते हो लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ अनछुआ अलिप्त रह जाता है। और उलझनों का यह सारा जीवन उसी अलिप्त तत्त्व के कारण संभव है।

तुम एक व्यक्ति को प्रेम करते हो तुम जितना हो सके उतना प्रेम करते हो। लेकिन भीतर गहरे में कुछ ऐसा है जो अलग निर्लिप्त बना रहता है। उसे ऐसा होना ही चाहिए अन्यथा तुम खो जाओगे। कुछ है जो आसक्ति में भी अनासक्त बना रहता है। जितनी अधिक आसक्ति होगी उतनी ही अधिक विरक्ति की अनुभूति तुम्हारे भीतर होगी क्योंकि बिना विपरीत के किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता। वस्तुओं की सत्ता विपरीत के कारण है।


गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,..


और जब तुम कुछ स्थिर देखते हो, तो मूर्ख मत बनना- वह अचल है लेकिन कुछ पहले से ही चल रहा है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि सब-कुछ गतिमान है यह अचल दीवाल भी, चट्टान भी। वे इतनी तीव्र गति से चल रहे हैं उनके अणु इतनी तीव्रता से गति कर रहे हैं कि तुम गति को देख नहीं पाते। इसीलिए वे स्थिर दिखाई देते हैं।

गति बहुत तीव्र है उतनी ही तेज है जितनी तेज प्रकाश की किरण चलती है। प्रकाश की किरण एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड के वेग से गति करती है। यही एक अणु की गति है। वह एक वर्तुल में घूमता है। वह इतनी तीव्र गति से घूमता है कि स्थिर दिखाई देता है।

कुछ भी स्थिर नहीं है और कुछ भी पूरी तरह से गतिमान नहीं है। प्रत्येक दोनों है- कुछ गतिमान कुछ स्थिर और स्थिर सारी गति का आधार बना रहता है। जब तुम कुछ स्थिर देखो तो धोखा मत खाना भीतर देखना और तुम पाओगे कि कहीं पहले ही गति घटित हो रही है। अगर तुम कुछ गतिमान देखो तो स्थिर की खोज करना। तुम उसे सदा वहां पाओगे यह बिलकुल निश्चित है क्योंकि एक अति अकेली नहीं हो सकती।

अगर मैं तुम्हें एक छड़ी दूं और कहूं कि इस छड़ी का एक ही सिरा है, इसका दूसर।-

सिरा नहीं है तुम कहोगे कि यह असंभव है। अगर इसका एक सिरा है तो दूसरा भी होना

चाहिए हो सकता है वह छिपा हुआ हो लेकिन यह असंभव है कि छड़ी का एक ही सिरा

हो। दूसरा अवश्य होगा अगर आरंभ है तो अंत अवश्य होगा।

बुद्ध निरंतर यही कहते हैं अगर तुम्हारा जन्म हुआ है, तो मृत्यु भी अवश्य होगी। जो भी जन्मा है, वह मरेगा। क्योंकि एक छोर प्रारंभ है तो दूसरा छोर कहां है छड़ी का दूसरा सिरा? उसे वहां होना ही चाहिए। हर चीज जो जन्मी है, उसे मरना ही पड़ेगा, हर चीज जो बनी है वह मिटेगी हर चीज जो संयुक्त हुई है अलग हो जाएगी प्रत्येक मिलन वियोग है प्रत्येक आगमन प्रस्थान है।

दोनों को एक साथ देखो और मन तुरंत मिट जाएगा। हो सकता है तुम थोड़ा चकरा जाओ क्योंकि मन सदा तर्कसंगत सीमा-रेखाओं में, तर्कसंगत स्पष्टता में जीया है। जब सब विभेद मिट जाते हैं सबमें छिपा विपरीत भी तो मन चकरा जाता है।

उस व्याकुलता को होने दो उसे घटित होने दो। जल्दी ही वह व्याकुलता चली जाएगी और तुम एक नई बुद्धिमत्ता एक नई जानकारी सत्य की एक नई दृष्टि में स्थिर हो जाओगे।

सत्य की यह नई दृष्टि संपूर्ण है, और इस संपूर्ण के साथ तुम शून्य हो। अब इसके संबंध में कोई मत नहीं है अब तुम जानते हो कि प्रत्येक मत असत्य होने वाला है।

किसी ने महावीर से पूछा - क्या परमात्मा है?

और महावीर ने कहा हां न। ही और न दोनों।

आदमी उलझन में पड़ गया। उसने कहा मैं समझा नहीं। या तो आप हां कहें या न कहें, लेकिन दोनों एक साथ न कहें।

महावीर ने कहा ये तो केवल तीन ही दृष्टिकोण हैं। अगर तुम पूरी बात सुनना चाहते हो तो मेरे पास प्रत्येक बात के लिए सात दृष्टिकोण हैं।

और महावीर के पास हैं! पहले वे कहते हैं हां- यह पूरा सत्य नहीं है केवल एक दृष्टिकोण है। फिर वे कहते हैं नहीं- यह भी पूरा सत्य नहीं है- दूसरा दृष्टिकोण है। फिर वे कहते हैं ही और न दोनों- तीसरा दृष्टिकोण। फिर वे कहते हैं हां और न, दोनों नहीं- चौथा दृष्टिकोण। फिर वे कहते हैं, हां और हां, और न दोनों- पांचवां दृष्टिकोण। न और हां और दोनों नहीं- छठवां दृष्टिकोण। न और हां और साथ ही दोनों नहीं- सातवां दृष्टिकोण।

वे कहते हैं सात पक्ष हैं और तब वह बात पूरी है। और वे ठीक हैं, लेकिन मन चकरा जाता है। लेकिन वह तुम्हारी समस्या है उनकी नहीं। वे ठीक हैं, क्योंकि उनका कहना है कि जब भी तुम कहते हो ही वह आधा है। एक अर्थ में एक वस्तु है, लेकिन दूसरे अर्थ में वह न होने के मार्ग पर चल ही चुकी है।

तुम कहते हो यह बच्चा जीवित है या मृत? वह जीवित है ही। लेकिन महावीर कहते हैं वह मृत्यु के मार्ग पर चल चुका है। वह मरेगा और मृत्यु निश्चित है इसलिए वक्तव्य में इसे भी समाविष्ट कर लो; नहीं तो वक्तव्य आधा होगा, असत्य होगा।

इसलिए महावीर कहते हैं हां एक अर्थ में बच्चा जीवित है और एक अर्थ में नहीं, क्योंकि इस बच्चे की मृत्यु होगी- न केवल मृत्यु होगी वास्तव में वह मरा ही हुआ है क्योंकि वह जीवित है। मृत्यु वहां छिपी है, वह उसका एक हिस्सा है। और इसीलिए वे कहते हैं कि यह तीसरा कथन कहना बेहतर होगा? वह दोनों है।

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